Friday, June 18, 2010

Vishnu Chalisa



दोहा
जै जै श्री जगत पति जगदाधार अनन्त ।
विश्वेश्वर अखिलेश अज सर्वेश्वर भगवन्त ।।

चौपाई
जै जै धरणीधर श्रुति सागर । जयति गदाधर सद्गुण आगर ।।
श्री वसुदेव देवकी नंदन । वासुदेव नाशन भव फन्दन ।।
नमो नमो सचराचर स्वामी । परंब्रह्म प्रभु नमो नमो नमामि ।।
नमो नमो त्रिभुवन पति ईश । कमलापति केशव योगीश ।।
गरुड़ध्वज अज भव भय हारी । मुरलीधर हरि मदन मुरारी ।।
नारायण श्रीपति पुरुषोत्तम । पद्मनाभि नरहरि सर्वोत्तम ।।
जै माधव मुकुन्द वनमाली । खल दल मर्दन दमन कुचाली ।।
जै अगणित इन्द्रिय सारंगधर । विश्व रुप वामन आन्नद कर ।।
जै जै लोकाध्यक्ष धनंजय । सहस्त्रज्ञ जगन्नाथ जयति जै ।।
जै मधुसूदन अनुपम आनन । जयति वायु वाहन वज्र कानन ।।
जै गोविन्द जनार्दन देवा । शुभ फल लहत गहत तव सेवा ।।
श्याम सरोरुह सम तन सोहत । दर्शन करत सुर नर मुनि मोहत ।।
भाल विशाल मुकुट सिर साजत । उर वैजन्ती माल विराजत ।।
तिरछी भृकुटि चाप जनु धारे । तिन तर नैन कमल अरुनारे ।।
नासा चिबुक कपोल मनोहर । मृदु मुस्कान कुञ्ज अधरन पर ।।
जनु मणि पंक्ति दशन मन भावन । बसन पीत तन परम सुहावन ।।
रुप चतुर्भज भूषित भूषण । वरद हस्त मोचन भव दूषण ।।
कंजारुन सम करतल सुन्दर । सुख समूह गुण मधुर समुन्दर ।।
कर महँ लसित शंख अति प्यारा । सुभग शब्द जै देने हारा ।।
रवि सम चक्र द्वितीय कर धारे । खल दल दानव सैन्य संहारे ।।
तृतीय हस्त महँ गदा प्रकाशन । सदा ताप त्रय पाप विनाशन ।।
पद्म चतुर्थ हाथ महँ धारे । चारि पदारथ देने हारे ।।
वाहन गरुड़ मनोगतिवाना । तिहुँ त्यागत जन हित भगवाना ।।
पहुँचि तहाँ पत राखत स्वामी । हो हरि सम भक्तन अनुरागी ।।
धनि धनि महिमा अगम अन्नता । धन्य भक्तवत्सल भगवन्ता ।।
जब जब सुरहिं असुर दुख दीन्हा । तब तब प्रकटि कष्ट हरि लीन्हा ।।
सुर नर मुनि ब्रहमादि महेशू । सहि न सक्यो अति कठिन कलेशू ।।
तब तहँ धरि बहुरुप निरन्तर । मर्द्यो दल दानवहि भयंकर ।।
शय्या शेष सिन्धु बिच साजित । संग लक्ष्मी सदा विराजित ।।
पूरन शक्ति धन्य धन खानी । आन्नद भक्ति भरणी सुख दानी ।।
जासु विरद निगमागम गावत । शारद शेष पार नहीं पावत ।।
रमा राधिका सिय सुख धामा । सोही विष्णु कृष्ण अरु रामा ।।

अगणित रुप अनूप अपारा । निर्गुण सगण स्वरुप तुम्हारा ।।
नहिं कछु भेद वेद अस भासत । भक्तन से नहिं अन्तर राखत ।।
श्री प्रयाग दुवाँसा धामा । सुन्दरदास तिवारी ग्रामा ।।
जग हित लागि तुम्हिं जगदीशा । निज मति रच्यो विष्णु चालीसा ।।
जो चित्त दै नित पढ़त पढ़ावत । पूरन भक्त्ति शक्ति सरसावत ।।
अति सुख वसत रुज ऋण नाशत । वैभव विकासत सुमति प्रकाशत ।।
आवत सुख गावत श्रुति शारद । भाषन व्यास वचन ऋषि नारद ।।
मिलत सुभग फल शोक नसावत । अन्त समय जन हरि पद पावत ।।

दोहा
प्रेम सहित गहि ध्यान महँ हृदय बीच जगदीश । अर्पित शालिग्राम कहँ करि तुलसी नित शीश ।।
क्षणभंगुर तनु जानि करि अहंकार परिहार । सार रुप ईश्वर लखै तजि असार संसार ।।
सत्य शोध करि उर गहै एक ब्रह्म ओंकार । आत्मबोध होवै तबै मिलै मुक्त्ति के द्वार ।।
शान्ति और सद्भाव कहँ जब उर फूलहिं फूल । चालिसा फल लहहिं जहँ रहहिं ईश अनुकूल ।।
एक पाठ जन नित करै विष्णु देव चालीस । चार पदारथ नवहुँ निधि देय द्वारिकाधीश ।।

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