Monday, May 31, 2010

सूर्य चालीसा

दोहा - Dohá
कनक बदन कुण्डल मकर, मुक्ता माला अड्ग ।
पद्मासन स्थित ध्याइये, शंख चक्र के सड्ग ॥

चौपाई - Chaupáí
जय सविता जय जयति दिवाकर । सहस्त्रांशु सप्ताश्व तिमिरहर ॥
भानु पतंग मरीची भास्कर सविता । हंस सुनूर विभाकर ॥

विवस्वान आदित्य विकर्तन । मार्तण्ड हरिरूप विरोचन ॥
अम्बरमणि खग रवि कहलाते । वेद हिरण्यगर्भ कह गाते ॥

सहस्त्रांशुप्रद्योतन कहि कहि । मुनिगन होत प्रसन्न मोदलहि ॥
अरुण सदृश सारथी मनोहर । हाँकत हय साता चढ़ि रथ पर ॥

मंडल की महिमा अति न्यारी । तेज रूप केरी बलिहारी ॥
उच्चैःश्रवा सदृश हय जोते । देखि पुरंदर लज्जित होते ॥

मित्र मरीचि भानु । अरुण भास्कर सविता ॥
सूर्य अर्क खग । कलिकर पूषा रवि ॥

आदित्य नाम लै । हिरण्यगर्भाय नमः कहिकै ॥
द्वादस नाम प्रेम सों गावैं । मस्तक बारह बार नवावै ॥

चार पदारथ सो जन पावै । दुःख दारिद्र अध पुञ्ज नसावै ॥
नमस्कार को चमत्कार यह । विधि हरिहर कौ कृपासार यह ॥

सेवै भानु तुमहिं मन लाई । अष्टसिद्धि नवनिधि तेहिं पाई ॥
बारह नाम उच्चारन करते । सहस जनम के पातक टरते ॥

उपाख्यान जो करते तवजन । रिपु सों जमलहते सोतेहि छन ॥
छन सुत जुत परिवार बढतु है । प्रबलमोह को फँद कटतु है ॥

अर्क शीश को रक्षा करते । रवि ललाट पर नित्य बिहरते ॥
सूर्य नेत्र पर नित्य विराजत । कर्ण देस पर दिनकर छाजत ॥

भानु नासिका वास रहु नित । भास्कर करत सदा मुख कौ हित ॥
ओंठ रहैं पर्जन्य हमारे । रसना बीच तीक्ष्ण बस प्यारे ॥

कंठ सुवर्ण रेत की शोभा । तिग्मतेजसः कांधे लोभा ॥
पूषां बाहू मित्र पीठहिं पर । त्वष्टा वरुण रहम सुउष्णाकर ॥

युगल हाथ पर रक्षा कारन । भानुमान उरसर्म सुउदरचन ॥
बसत नाभि आदित्य मनोहर । कटि मंह हँस रहत मन मुदभर ॥

जंघा गोपति सविता बासा । गुप्त दिवाकर करत हुलासा ॥
विवस्वान पद की रखवारी । बाहर बसते नित तम हारी ॥

सहस्त्रांशु सर्वांग सम्हारै । रक्षा कवच विचित्र विचारे ॥
अस जोजन अपने मन माहीं । भय जग बीज करहुँ तेहि नाहीं ॥

दरिद्र कुष्ट तेहिं कबहुँ न व्यापै । जोजन याको मनमहं जापै ॥
अंधकार जग का जो हरता । नव प्रकाश से आनन्द भरता ॥

ग्रह गन ग्रिस न मिटावत जाही । कोटि बार मैं प्रनवौं ताही ॥
मन्द सदृश सुतजग में जाके । धर्मराज सम अद्भुत बाँके ॥

धन्य धन्य तुम दिनमनि देवा । किया करत सुरमुनि नर सेवा ॥
भक्ति भावतुत पूर्ण नियमसों । दूर हटतसो भवके भ्रमसों ॥

परम माघ महं सूर्य फाल्गुन । मध वेदांगनाम रवि गावै ॥
भानु उदय वैसाख गिनावै । ज्येष्ट इन्द्र आषाढ़ रवि गावै ॥

यह भादों आश्विन हिमरेता । कातिक होत दिवाकर नेता ॥
अगहन भिन्न विष्णु हैं पूसहिं । पुरुष नाम रवि हैं मलमासहिं ॥

दोहा - Dohá
भानु चालीसा प्रेम युत, गावहि जे नर नित्य ।
सुख साम्पत्ति लहै विविध, होंहि सदा कृतकृत्य ॥

भगवान सूर्य की आरती

जय कश्यप नन्दन, ऊँ जय अदिति नन्दन।
द्दिभुवन तिमिर निकंदन, भक्त हृदय चन्दन॥
जय सप्त अश्वरथ राजित, एक चक्रधारी।
दु:खहारी, सुखकारी, मानस मलहारी॥
जय सुर मुनि भूसुर वन्दित, विमल विभवशाली।
अघ-दल-दलन दिवाकर, दिव्य किरण माली॥
जय सकल सुकर्म प्रसविता, सविता शुभकारी।
विश्व विलोचन मोचन, भव-बंधन भारी॥
जय कमल समूह विकासक, नाशक त्रय तापा।
सेवत सहज हरत अति, मनसिज संतापा॥
जय नेत्र व्याधि हर सुरवर, भू-पीड़ा हारी।
वृष्टि विमोचन संतत, परहित व्रतधारी॥
जय सूर्यदेव करुणाकर, अब करुणा कीजै।
हर अज्ञान मोह सब, तत्वज्ञान दीजै॥ जय ..

सूर्य मंत्र

सूर्य गायत्री
ऊँ आदित्याय विदमहे दिवाकराय धीमहि तन्न: सूर्य: प्रचोदयात.

सूर्य बीज मंत्र
ऊँ ह्रां ह्रीं ह्रौं स: ऊँ भूभुर्व: स्व: ऊँ आकृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतम्मर्तंच ।
हिण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन ऊँ स्व: भुव: भू: ऊँ स: ह्रौं ह्रीं ह्रां ऊँ सूर्याय नम: ॥

सूर्य जप मंत्र
ऊँ ह्राँ ह्रीँ ह्रौँ स: सूर्याय नम: ।

सूर्य स्तुति

दीन-दयालु दिवाकर देवा ।
कर मुनि,मनुज,सुरासुर सेवा ॥ १ ॥

हिम-तम-करि केहरि करमाली ।
दहन दोष-दुख-दुरित-रुजाली ॥ २ ॥

कोक-कोकनद-लोक-प्रकासी ।
तेज-प्रताप-रूप-रस-रासी ॥ ३ ॥

सारथि-पंगु,दिब्य रथ-गामी ।
हरि-संकर-बिधि-मूरति स्वामी ॥ ४ ॥

बेद पुरान प्रगट जस जागै ।
तुलसी राम-भगति बर माँगै ॥ ५ ॥

सूर्य स्तोत्र

विकर्तनो विवस्वांश्च मार्तण्डो भास्करो रविः।
लोक प्रकाशकः श्री माँल्लोक चक्षुर्मुहेश्वरः॥
लोकसाक्षी त्रिलोकेशः कर्ता हर्ता तमिस्रहा।
तपनस्तापनश्चैव शुचिः सप्ताश्ववाहनः॥
गभस्तिहस्तो ब्रह्मा च सर्वदेवनमस्कृतः।
एकविंशतिरित्येष स्तव इष्टः सदा रवेः॥
Brahma Puran 31.31-33

परशुरामकृतं कालीस्तोत्रम्

परशुराम द्वारा काली स्तोत्र
परशुराम उवाच
नम: शंकरकान्तायै सारायै ते नमो नम:।
नमो दुर्गतिनाशिन्यै मायायै ते नमो नम:॥

नमो नमो जगद्धा˜यै जगत्क˜र्यै नमो नम:।
नमोऽस्तु ते जगन्मात्रे कारणायै नमो नम:॥

प्रसीद जगतां मात: सृष्टिसंहारकारिणि।
त्वत्पादे शरणं यामि प्रतिज्ञां सार्थिकां कुरु॥

त्वयि मे विमुखायां च को मां रक्षितुमीश्वर:।
त्वं प्रसन्ना भव शुभे मां भक्तं भक्तवत्सले॥

युष्माभि: शिवलोके च मह्यं दत्तो वर: पुरा।
तं वरं सफलं कर्तु त्वमर्हसि वरानने॥

जामदग्न्यस्तवं श्रुत्वा प्रसन्नाभवदम्बिका।
मा भैरित्येवमुक्त्वा तु तत्रैवान्तरधीयत॥

एतद् भृगुकृतं स्तोत्रं भक्तियुक्तश्च य: पठेत्।
महाभयात् समुत्तीर्ण: स भवेदवलीलया॥

स पूजितश्च त्रैलोक्ये त्रैलोक्यविजयी भवेत्।
ज्ञानिश्रेष्ठो भवेच्चैव वैरिपक्षविमर्दक:॥

अर्थ :- परशुराम बोले - आप शंकरजी की प्रियतमा पत्नी हैं, आपको नमस्कार है। सारस्वरूपा आपको बारम्बार प्रणाम है। दुर्गतिनाशिनी को मेरा अभिवादन है। मायारूपा आपको मैं बारम्बार सिर झुकाता हूँ। जगद्धात्री को नमस्कार-नमस्कार। जगत्कर्त्री को पुन:-पुन: प्रणाम। जगज्जननी को मेरा नमस्कार प्राप्त हो। कारणरूपा आपको बारम्बार अभिवादन है। सृष्टि का संहार करनेवाली जगन्माता! प्रसन्न होइये। मैं आपके चरणों की शरण ग्रहण करता हूँ, मेरी प्रतिज्ञा सफल कीजिये। मेरे प्रति आपके विमुख हो जाने पर कौन मेरी रक्षा कर सकता है? भक्तवत्सले! शुभे! आप मुझ भक्त पर कृपा कीजिये। सुमुखि! पहले शिवलोक में आपलोगों ने मुझे जो वरदान दिया था, उस वर को आपको सफल करना चाहिये।
परशुराम द्वारा किये गये इस स्तवन को सुनकर अम्बिका का मन प्रसन्न हो गया और भय मत करो यों कहकर वे वहीं अन्तर्धान हो गयीं। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इस परशुरामकृत स्तोत्र का पाठ करता है, वह अनायास ही महान् भय से छूट जाता है। वह त्रिलोकी में पूजित, त्रैलोक्यविजयी, ज्ञानियों में श्रेष्ठ और शत्रुपक्ष का विमर्दन करनेवाला हो जाता है।
------------------------------------------------------------------
स्त्रोत :- यह स्तोत्र ब्रह्मवैवर्तपुराण के गणपतिखण्ड से उद्धृत है।

दशरथकृत शनि स्तोत्र

नम: कृष्णाय नीलाय शितिकण्ठ निभाय च।
नम: कालाग्निरूपाय कृतान्ताय च वै नम: ।।

नमो निर्मांस देहाय दीर्घश्मश्रुजटाय च ।
नमो विशालनेत्राय शुष्कोदर भयाकृते।।

नम: पुष्कलगात्राय स्थूलरोम्णेऽथ वै नम:।
नमो दीर्घाय शुष्काय कालदंष्ट्र नमोऽस्तु ते।।

नमस्ते कोटराक्षाय दुर्नरीक्ष्याय वै नम: ।
नमो घोराय रौद्राय भीषणाय कपालिने।।

नमस्ते सर्वभक्षाय बलीमुख नमोऽस्तु ते।
सूर्यपुत्र नमस्तेऽस्तु भास्करेऽभयदाय च ।।

अधोदृष्टे: नमस्तेऽस्तु संवर्तक नमोऽस्तु ते।
नमो मन्दगते तुभ्यं निस्त्रिंशाय नमोऽस्तुते ।।

तपसा दग्ध-देहाय नित्यं योगरताय च ।
नमो नित्यं क्षुधार्ताय अतृप्ताय च वै नम: ।।

ज्ञानचक्षुर्नमस्तेऽस्तु कश्यपात्मज-सूनवे ।
तुष्टो ददासि वै राज्यं रुष्टो हरसि तत्क्षणात् ।।

देवासुरमनुष्याश्च सिद्ध-विद्याधरोरगा:।
त्वया विलोकिता: सर्वे नाशं यान्ति समूलत:।।

प्रसाद कुरु मे सौरे ! वारदो भव भास्करे।
एवं स्तुतस्तदा सौरिर्ग्रहराजो महाबल: ।।

देवी स्तोत्र

या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरूपेणसंस्थिता।
नमस्तस्यैनमस्तस्यैनमस्तस्यैनमोनम:।।

सरस्वती स्तोत्र

शुक्लांब्रह्मविचारसारपरमामाद्यांजगद्व्यापिनीम्।
वीणा पुस्तकधारिणीमभयदांजाड्यान्धकारापहाम्॥
हस्ते स्फटिकमालिकांविदधतींपद्मासनेसंस्थिताम्।
वन्दे तांपरमेश्वरींभगवतींबुद्धिप्रदांशारदाम्॥

लक्ष्मी गणेश स्तोत्र

लक्ष्मी प्राप्ति के लिए गणेश स्तोत्र

ॐ नमो विघ्नराजाय सर्वसौख्याप्रदयिने। 
द्रष्टारिष्टविनाशाय पराय परमात्मने ॥
लम्बोदरं महावीर्य नाग्यग्योपशोभितम। 
अर्ध्चन्द्रधरम देव विघ्न व्यूह विनाशनम॥
ॐ ह्रां, ह्रीं, ह्रूं ह्रे ह्रौं ह्रं : हेरम्बाय नमो नमः। 
सर्व्सिद्धिप्रदोसि त्वं सिद्धिबुद्धि प्रदो भव ॥
चिन्तितार्थ्प्रदस्तव हि, सततं मोदकप्रिय : । 
सिंदुरारून वस्त्रेस्च पूजितो वरदायकः ॥
इदं गणपति स्तोत्रं यः पठेद भक्तिमान नरः । 
तस्य देहं च गेहं च स्वयं लक्ष्मिर्ण मुंचति ॥

इस स्तोत्र का दीपावली की रात्रि में १०८ बार पाठ कर सिद्ध कर ले, तत्पश्चात प्रत्येक दिन प्रातः काल इस स्तोत्र का पाठ करे। इस स्तोत्र का पाठ करने से घर में धन धान्य की वृद्धि होती है।

गंगा स्तोत्र

ॐ नमः सच्चिदानंदरूपाय परमात्मने
ज्योतिर्मयस्वरूपाय विश्वमांगल्यमूर्तये॥१॥

प्रकृतिः पंचभूतानि ग्रहलोकस्वरास्तथा
दिशः कालश्च सर्वेषां सदा कुर्वंतु मंगलम्॥२॥

रत्नाकराधौतपदां हिमालयकिरीटिनीम्
ब्रह्मराजर्षिरत्नाढ्याम् वन्दे भारतमातरम् ॥३॥

महेंद्रो मलयः सह्यो देवतात्मा हिमालयः
ध्येयो रैवतको विन्ध्यो गिरिश्चारावलिस्तथा ॥४॥

गंगा सरस्वती सिंधु ब्रह्मपुत्राश्च गण्डकी
कावेरी यमुना रेवा कृष्णा गोदा महानदी ॥५॥

अयोध्या मथुरा माया काशी कांची अवंतिका
वैशाली द्वारका ध्येया पुरी तक्शशिला गया ॥६॥

प्रयागः पाटलीपुत्रं विजयानगरं महत्
इंद्रप्रस्थं सोमनाथस्तथामृतसरः प्रियम्॥७॥

चतुर्वेदाः पुराणानि सर्वोपनिषदस्तथा
रामायणं भारतं च गीता षड्दर्शनानि च ॥८॥

जैनागमास्त्रिपिटकः गुरुग्रन्थः सतां गिरः
एष ज्ञाननिधिः श्रेष्ठः श्रद्धेयो हृदि सर्वदा॥९॥

अरुन्धत्यनसूय च सावित्री जानकी सती
द्रौपदी कन्नगे गार्गी मीरा दुर्गावती तथा ॥१०॥

लक्ष्मी अहल्या चन्नम्मा रुद्रमाम्बा सुविक्रमा
निवेदिता सारदा च प्रणम्य मातृ देवताः ॥११॥

श्री रामो भरतः कृष्णो भीष्मो धर्मस्तथार्जुनः
मार्कंडेयो हरिश्चन्द्र प्रह्लादो नारदो ध्रुवः ॥१२॥

हनुमान् जनको व्यासो वसिष्ठश्च शुको बलिः
दधीचि विश्वकर्माणौ पृथु वाल्मीकि भार्गवः ॥१३॥

भगीरथश्चैकलव्यो मनुर्धन्वन्तरिस्तथा
शिबिश्च रन्तिदेवश्च पुराणोद्गीतकीर्तयः ॥१४॥

बुद्ध जिनेन्द्र गोरक्शः पाणिनिश्च पतंजलिः
शंकरो मध्व निंबार्कौ श्री रामानुज वल्लभौ ॥१५॥

झूलेलालोथ चैतन्यः तिरुवल्लुवरस्तथा
नायन्मारालवाराश्च कंबश्च बसवेश्वरः ॥१६॥

देवलो रविदासश्च कबीरो गुरु नानकः
नरसी तुलसीदासो दशमेषो दृढव्रतः ॥१७॥

श्रीमच्छङ्करदेवश्च बंधू सायन माधवौ
ज्ञानेश्वरस्तुकाराम रामदासः पुरन्दरः ॥१८॥

बिरसा सहजानन्दो रमानन्दस्तथा महान्
वितरन्तु सदैवैते दैवीं षड्गुणसंपदम् ॥१९॥

भरतर्षिः कालिदासः श्रीभोजो जकनस्तथा
सूरदासस्त्यागराजो रसखानश्च सत्कविः ॥२०॥

रविवर्मा भातखंडे भाग्यचन्द्रः स भोपतिः
कलावंतश्च विख्याताः स्मरणीया निरंतरम् ॥२१॥

अगस्त्यः कंबु कौन्डिण्यौ राजेन्द्रश्चोल वंशजः
अशोकः पुश्य मित्रश्च खारवेलः सुनीतिमान् ॥२२॥

चाणक्य चन्द्रगुप्तौ च विक्रमः शालिवाहनः
समुद्रगुप्तः श्रीहर्षः शैलेंद्रो बप्परावलः ॥२३॥

लाचिद्भास्कर वर्मा च यशोधर्मा च हूणजित्
श्रीकृष्णदेवरायश्च ललितादित्य उद्बलः ॥२४॥

मुसुनूरिनायकौ तौ प्रतापः शिव भूपतिः
रणजितसिंह इत्येते वीरा विख्यात विक्रमाः ॥२५॥

वैज्ञानिकाश्च कपिलः कणादः शुश्रुतस्तथा
चरको भास्कराचार्यो वराहमिहिर सुधीः ॥२६॥

नागार्जुन भरद्वाज आर्यभट्टो वसुर्बुधः
ध्येयो वेंकट रामश्च विज्ञा रामानुजायः ॥२७॥

रामकृष्णो दयानंदो रवींद्रो राममोहनः
रामतीर्थोऽरविंदश्च विवेकानंद उद्यशः ॥२८॥

दादाभाई गोपबंधुः टिळको गांधी रादृताः
रमणो मालवीयश्च श्री सुब्रमण्य भारती ॥२९॥

सुभाषः प्रणवानंदः क्रांतिवीरो विनायकः
ठक्करो भीमरावश्च फुले नारायणो गुरुः ॥३०॥

संघशक्ति प्रणेतारौ केशवो माधवस्तथा
स्मरणीय सदैवैते नवचैतन्यदायकाः ॥३१॥

अनुक्ता ये भक्ताः प्रभुचरण संसक्तहृदयाः
अविज्ञाता वीरा अधिसमरमुद्ध्वस्तरि पवः
समाजोद्धर्तारः सुहितकर विज्ञान निपुणाः
नमस्तेभ्यो भूयात्सकल सुजनेभ्यः प्रतिदिनम् ॥ ३२॥

इदमेकात्मता स्तोत्रं श्रद्धया यः सदा पठेत्
स राष्ट्रधर्म निष्ठावानखंडं भारतं स्मरेत् ॥३३॥

गायत्री स्तोत्र

सुकल्याणीं वाणीं सुरमुनिवरैः पूजितपदाम
शिवाम आद्यां वंद्याम त्रिभुवन मयीं वेदजननीं
परां शक्तिं स्रष्टुं विविध विध रूपां गुण मयीं
भजे अम्बां गायत्रीं परम सुभगा नंदजननीम

विशुद्धां सत्त्वस्थाम अखिल दुरवस्थादिहरणीम्
निराकारां सारां सुविमल तपो मुर्तिं अतुलां
जगत् ज्येष्ठां श्रेष्ठां सुर असुर पूज्यां श्रुतिनुतां
भजे अम्बां गायत्रीं परम सुभगा नंदजननीम

तपो निष्ठां अभिष्टां स्वजनमन संताप शमनीम
दयामूर्तिं स्फूर्तिं यतितति प्रसादैक सुलभां
वरेण्यां पुण्यां तां निखिल भवबन्धाप हरणीं
भजे अम्बां गायत्रीं परम सुभगा नंदजननीम

सदा आराध्यां साध्यां सुमति मति विस्तारकरणीं
विशोकां आलोकां ह्रदयगत मोहान्धहरणीं
परां दिव्यां भव्यां अगम भव सिन्ध्वेक तरणीं
भजे अम्बां गायत्रीं परम सुभगा नंदजननीम

अजां द्वैतां त्रेतां विविध गुणरूपां सुविमलां
तमो हन्त्रीं तन्त्रीं श्रुति मधुरनादां रसमयीं
महामान्यां धन्यां सततकरूणाशील विभवां
भजे अम्बां गायत्रीं परम सुभगा नंदजननीम

जगत् धात्रीं पात्रीं सकल भव संहारकरणीं
सुवीरां धीरां तां सुविमलतपो राशि सरणीं
अनैकां ऐकां वै त्रयजगत् अधिष्ठान् पदवीं
भजे अम्बां गायत्रीं परम सुभगा नंदजननीम

प्रबुद्धां बुद्धां तां स्वजनयति जाड्यापहरणीं
हिरण्यां गुण्यां तां सुकविजन गीतां सुनिपुणीं
सुविद्यां निरवद्याममल गुणगाथां भगवतीं
भजे अम्बां गायत्रीं परम सुभगा नंदजननीम

अनन्तां शान्तां यां भजति वुध वृन्दः श्रुतिमयीम
सुगेयां ध्येयां यां स्मरति ह्रदि नित्यं सुरपतिः
सदा भक्त्या शक्त्या प्रणतमतिभिः प्रितिवशगां
भजे अम्बां गायत्रीं परम सुभगा नंदजननीम

विभीषणकृतं हनुमत्स्तोत्रम्

नमो हनुमते तुभ्यं नमो मारुतसूनवे। नम: श्रीरामभक्ताय श्यामास्याय च ते नम:॥
नमो वानरवीराय सुग्रीवसख्यकारिणे। लङ्काविदाहनार्थाय हेलासागरतारिणे॥
सीताशोकविनाशाय राममुद्राधराय च। रावणान्तकुलच्छेदकारिणे ते नमो नम:॥
मेघनादमखध्वंसकारिणे ते नमो नम:। अशोकवनविध्वंसकारिणे भयहारिणे॥
वायुपुत्राय वीराय आकाशोदरगामिने। वनपालशिरश्छेदलङ्काप्रासादभञ्जिने॥
ज्वलत्कनकवर्णाय दीर्घलाड्गूलधारिणे। सौमित्रिजयदात्रे च रामदूताय ते नम:॥
अक्षस्य वधकत्र्रे च ब्रह्मपाशनिवारिणे। लक्ष्मणाङ्गमहाशक्तिघातक्षतविनाशिने॥
रक्षोघ्राय रिपुघनय भूतघनय च ते नम:। ऋक्षवानरवीरौघप्राणदाय नमो नम:॥
परसैन्यबलघनय शस्त्रास्त्रघनय ते नम:। विषघनय द्विषघनय ज्वरघनय च ते नम:॥
महाभयरिपुघनय भक्तत्राणैककारिणे। परप्रेरितमन्द्दाणां यन्द्दाणां स्तम्भकारिणे॥
पय:पाषाणतरणकारणाय नमो नम:। बालार्कमण्डलग्रासकारिणे भवतारिणे॥
नखायुधाय भीमाय दन्तायुधधराय च। रिपुमायाविनाशाय रामाज्ञालोकरक्षिणे॥
प्रतिग्रामस्थितायाथरक्षोभूतवधार्थिने। करालशैलशस्त्राय द्रुमशस्त्राय ते नम:॥
बालैकब्रह्मचर्याय रुद्रमूर्तिधराय च। विहंगमाय सर्वाय वज्रदेहाय ते नम:॥
कौपीनवाससे तुभ्यं रामभक्तिरताय च। दक्षिणाशाभास्कराय शतचन्द्रोदयात्मने॥
कृत्याक्षतव्यथाघनय सर्वकेशहराय च। स्वाम्याज्ञापार्थसंग्रामसंख्ये संजयधारिणे॥
भक्तान्तदिव्यवादेषु संग्रामे जयदायिने। किल्किलाबुबुकोच्चारघोरशब्दकराय च॥
सर्पागिन्व्याधिसंस्तम्भकारिणे वनचारिणे। सदा वनफलाहारसंतृप्ताय विशेषत:॥
महार्णवशिलाबद्धसेतुबन्धाय ते नम:। वादे विवादे संग्राम भये घोरे महावने॥
सिंहव्याघ्रादिचौरेभ्य: स्तोत्रपाठद् भयं न हि। दिव्ये भूतभये व्याधौ विषे स्थावरजङ्गमे॥
राजशस्त्रभये चोग्रे तथा ग्रहभयेषु च। जले सर्वे महावृष्टौ दुर्भिक्षे प्राणसम्प£वे॥
पठेत् स्तोत्रं प्रमुच्येत भयेभ्य: सर्वतो नर:। तस्य क्वापि भयं नास्ति हनुमत्स्तवपाठत:॥
सर्वदा वै त्रिकालं च पठनीयमिदं स्तवम्। सर्वान् कामानवापनेति नात्र कार्या विचारणा॥
विभीषणकृतं स्तोत्र ताक्ष्र्येण समुदीरितम्। ये पठिष्यन्ति भक्त्या वै सिद्धयस्तत्करे स्थिता॥ 

अर्थ :- हनुमान! आपको नमस्कार है। मारुतनन्दन! आपको प्रणाम है। श्रीरामभक्त! आपको अभिवादन है। आपके मुख का वर्ण श्याम है, आपको नमस्कार है। आप सुग्रीव के साथ (भगवान् श्रीराम की) मैत्री के संस्थापक और लंका को भस्म कर देने के अभिप्राय से खेल-ही-खेल में महासागर को लाँघ जानेवाले हैं, आप वानर-वीर को प्रणाम है। आप श्रीराम की मुद्रिका को धारण करनेवाले, सीताजी के शोक के निवारक और रावण के कुल के संहारकर्ता हैं, आपको बारम्बार अभिवादन है। आप अशोक-वन को नष्ट-भ्रष्ट कर देनेवाले और मेघनाद के यज्ञ के विध्वंसकर्ता हैं, आप भयहारी को पुन:-पुन: नमस्कार है। आप वायु के पुत्र, श्रेष्ठ वीर, आकाश के मध्य विचरण करनेवाले और अशोक-वन के रक्षकों का शिरश्छेदन करके लंका की अट्टालिकाओं को तोड-फोड डालनेवाले हैं। आपकी शरीर-कान्ति प्रतप्त सुवर्णकी-सी है, आपकी पूँछ लंबी है और आप सुमित्रा-नन्दन लक्ष्मण के विजय-प्रदाता हैं, आप श्रीराम दूत को प्रणाम है। आप अक्षकुमार के वधकर्ता, ब्रह्मपाश के निवारक, लक्ष्मणजी के शरीर में महाशक्ति के आघात से उत्पन्न हुए घाव के विनाशक, राक्षस, शत्रु एवं भूतों के संहारकर्ता और रीछ एवं वानर-वीरों के समुदाय के लिये जीवन-दाता हैं, आपको बारम्बार अभिवादन है।
आप शस्त्रास्त्र के विनाशक तथा शत्रुओं के सैन्य-बल का मर्दन करनेवाले हैं। आपको नमस्कार है। विष, शत्रु और ज्वर के नाशक आपको प्रणाम है। आप महान् भयंकर शत्रुओं के संहारक, भक्तों के एकमात्र रक्षक, दूसरों द्वारा प्रेरित मन्त्र-यन्त्रों को स्तम्भित कर देनेवाले और समुद्र-जल पर शिलाखण्डों के तैरने में कारणस्वरूप हैं, आपको पुन:-पुन: अभिवादन है। आप बाल-सूर्य मण्डल के ग्रास-कर्ता और भवसागर से तारनेवाले हैं, आपका स्वरूप महान् भयंकर है, आप नख और दाँतों को ही आयुधरूप में धारण करते हैं तथा शत्रुओं की माया के विनाशक और श्रीराम की आज्ञा से लोगों के पालनकर्ता हैं, राक्षसों एवं भूतों का वध करना ही आपका प्रयोजन है, प्रत्येक ग्राम में आप मूर्तरूप में स्थित हैं, विशाल पर्वत और वृक्ष ही आपके शस्त्र हैं, आपको नमस्कार है। आप एकमात्र बाल-ब्रह्मचारी, रुद्ररूप में अवतरित और आकाशचारी हैं, आपका शरीर वज्र के समान कठोर है, आप सर्वस्वरूप को प्रणाम है।
कौपीन ही आपका वस्त्र है, आप निरन्तर श्रीरामभक्ति में निरत रहते हैं, दक्षिण दिशा को प्रकाशित करने के लिये आप सूर्य-सदृश हैं, सैकडों चन्द्रोदयकी-सी आपकी शरीर-कान्ति है, आप कृत्याद्वारा किये गये आघात की व्यथा के नाशक, सम्पूर्ण कष्टों के निवारक, स्वामी की आज्ञा से पृथा-पुत्र अर्जुन के संग्राम में मैत्रीभाव के संस्थापक, विजयशाली, भक्तों के अन्तिम दिव्य वाद-विवाद तथा संग्राम में विजय-प्रदाता, किलकिला एवं बुबुक के उच्चारणपूर्वक भीषण शब्द करनेवाले, सर्प, अगिन् और व्याधि के स्तम्भक, वनचारी, सदा जंगली फलों के आहार से विशेषरूप से संतुष्ट और महासागर पर शिलाखण्डों द्वारा सेतु के निर्माणकर्ता हैं, आपको नमस्कार है। इस स्तोत्र का पाठ करने से वाद-विवाद, संग्राम, घोर भय एवं महावन में सिंह-व्याघ्र आदि हिंसक जन्तुओं तथा चोरों से भय नहीं प्राप्त होता। यदि मनुष्य इस स्तोत्र का पाठ करे तो वह दैविक तथा भौतिक भय, व्याधि, स्थावर-जंगमसम्बन्धी विष, राजा का भयंकर शस्त्र-भय, ग्रहों का भय, जल, सर्प, महावृष्टि, दुर्भिक्ष तथा प्राण-संकट आदि सभी प्रकार के भयों से मुक्त हो जाता है। इस हनुमत्स्तोत्र के पाठ से उसे कहीं भी भय की प्राप्ति नहीं होती। नित्य-प्रति तीनों समय (प्रात:, मध्याह्न, संध्या) इस स्तोत्र का पाठ करना चाहिये। ऐसा करने से सम्पूर्ण कामनाओं की प्राप्ति हो जाती है। इस विषय में अन्यथा विचार करने की आवश्यकता नहीं है। विभीषण द्वारा किये गये इस स्तोत्र का गरुड ने सम्यक् प्रकार से पाठ किया था। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इसका पाठ करेंगे, समस्त सिद्धियाँ उनके करतलगत हो जायँगी।
*****
स्त्रोत :- विभीषणकृत यह स्तोत्र श्रीसुदर्शन संहिता विभीषण-गरुड संवाद से उद्धृत है।

कृष्ण आराधना स्तोत्र

॥ कृष्णसहस्रनामस्तोत्र ॥

श्रीमद्रुक्मिमहीपालवंशरक्षामणिः स्थिरः।
राजा हरिहरः क्षोणीं रक्षत्यम्बुधिमेखलाम्।1॥
स राजा सर्वतन्त्रज्ञः समभ्यर्च्य वरप्रदम्।
देवं श्रियः पतिं स्तुत्या समस्तौद्वेदवेदितम्॥2॥
तस्य हृष्टाशयः स्तुत्या विष्णुर्गोपांगनावृतः।
स पिंछश्यामलं रूपं पिंछोत्तसमदर्शयत्॥3॥
स पुनः स्वात्मविन्यस्तचित्तं हरिहरं नृपम्।
अभिषिच्य कृपावर्षैरमाषत कृतांजलिम्॥4॥
श्रीभगवानुवाच :
मामवेहि महाभाग! कृष्णं कृत्यविदां वर।
पुरःस्थितोऽस्मित्वद्भक्तया पूर्णास्सन्तु मनोरथाः॥5॥
संरक्षणाय शिष्टानां दुष्टानां शिक्षणाय च।
समृद्ध्यै वेदधर्माणां ममांशत्वमिहोदितः॥6॥
राजन्नामसहस्रेण रामो नाम्नां स्तुतस्त्वया।
सोऽहं सर्वविदो तस्मात्प्रसन्नोऽस्मि विशेषतः॥7॥
मामपि त्वं महाभाग मदीयचरितात्मना।
संप्रीणय सहस्रेण नाम्नां सर्वार्थदायिनाम्॥8॥
पराशरेण मुनिना व्यासेनाम्नायदर्शिना।
स्वात्मभाजा शुकेनापि सूक्तेऽप्येतद्विभावितम्॥9॥
तं हि त्वमनुसन्धेहि सहस्रशिरसं प्रभुम्।
दत्तास्येषु मया न्यस्तं सहस्रं रक्षयिष्यति॥10॥
इदं विश्वहितार्थाय रसनारंगोचरम्।
प्रकाशय त्वं मेदिन्यां परभागमसम्मतम्॥11॥
इदं शठाय मूर्खाय नास्तिकाय विकीणिने।
असूयिनेऽहितायापि न प्रकाश्यं कदाचन॥12॥
विवेकिने विशुद्धाय वेदमार्गानुसारिणे।
आस्तिकायात्मनिष्ठाय स्वात्मन्यनुसृतोदयम्॥13॥
कृष्णनामसहस्रं वै कृतधीरेतदीरयेत्।

विनियोग :
ॐ अस्य श्रीकृष्णसहस्रनामस्तोत्रमन्त्रस्य पराशरऋषिः, 
अनुष्टुप्छन्दः, श्रीकृष्णः परमात्मा देवता, श्रीकृष्णेति बीजम्, 
श्रीवल्लभेति शक्तिः, शांर्गीति कीलकं, 
श्रीकृष्णप्रीत्यर्थे जपे विनियोगः॥

न्यास :
पराशराय ऋषये नमः इति शिरसि, 
अनुष्टुप् छन्दसे नमः इति मुखे, 
गोपालकृष्णदेवतायै नमः, इति हृदये, 
श्रीकृष्णाय बीजाय नमः इति गुह्यो, 
श्रीवल्लभाय शक्तयै नमः इति पादयोः, 
शांर्गधराय कीलकाय नमः इति सर्वांगे॥

करन्यास :
श्रीकृष्ण इत्यारभ्य शूरवंशैकधीरित्यन्तानि अंगुष्ठाभ्यां नमः। 
शौरिरित्यारभ्य स्वभासोद्भासितव्रज इत्यन्तानि तर्जनीभ्यां नमः। 
कृतात्मविद्याविन्यासइत्यारभ्य प्रस्थानशकटारूढ इति मध्यमाभ्यां नमः, 
बृंदावनकृतालय इत्यारभ्य मधुराजनवीक्षित इत्यानामिकाभ्यां नमः, 
रजकप्रतिघातक इत्यारभ्य द्वारकापुरकल्पन इति कनिष्ठिकाभ्यां नमः, 
द्वारकानिलय इत्यारभ्य पराशर इति करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः, 
एवं हृदयादिन्यासः॥

ध्यानम् :
केषांचित्प्रेमपुंसां विगलितमनसां बाललीलाविलासं
केषांगोपाललीलांकितरसिकतनुर्वेणुवाद्येन देवम्।
केषां वामासमाजे जनितमनसिजो दैत्यदर्पापहैवं
ज्ञात्वाभिन्नाभिलाषं सजयति जगतामीश्वरस्तादृशोऽभूत्॥1॥
क्षीराब्धौ कृतसंस्तवस्सुरगणैब्रह्मदिभिः पण्डितैः
प्रोद्भूतो वसुदेवसद्मनि मुदा चिक्रीड यो गोकुले।
कंसध्वंशकृते जगाम मधुरां सारामसद्वारकां
गोपालोऽखिलगोपिकाजनसखः पायादपायात्स नः॥2॥
कल्लेन्दी वरकान्तिमिन्दुवदनं बर्हावतंसप्रियं
श्रीवत्सांकमुदारकौस्तुभधरं पीताम्बरं सुन्दरम्।
गोपीनां नयनोत्पलार्चिततनुं गोगोपसंघावृतं
गोविंदं कलवेणुवादनरतं दिव्यांगभूषं भजे॥3॥

विष्णु स्तोत्र

ॐ परम ब्रह्म परमात्मने नमः
ॐ परम तत्वाय नारायणाय गुरुभ्यो नमः

विष्णु स्तुति

त्वमेव माता च पिता त्वमेव,
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव,
त्वमेव सर्वं मम देव देव।।

शनि स्तुति

ओम् शं शनैश्चराय नम:
ध्वजनि धामिनी चैव कंकाली कलहप्रिया।
कंटकी कलही चाऽथ तुरंगी महिषी अजा॥
ओम शं शनैश्चराय नम:

काली स्तुति

काली काली महाकाली कालिके परमेश्वरी ।
सर्वानन्दकरी देवी नारायणि नमोऽस्तुते ।।

श्री गंगा जी की स्तुति

गांगं वारि मनोहारि मुरारिचरणच्युतम् ।
त्रिपुरारिशिरश्चारि पापहारि पुनातु माम् ।।

गायत्री स्तुति

ऊँ स्तुता मया वरदा वेदमाता,
प्रचोदयन्तां पावमानी द्घिजानाम् ।
आयुः प्राणं प्रजां पशुं,
कीर्ति द्रविणं ब्रहृवर्चसम् ।
महृं दत्वा ब्रजत ब्रहृलोकम् ।

हनुमान स्तुति

मनोजवं मारुत-तुल्य-वेगं,
जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम्।
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं,
श्री रामदूतं शरणं प्रपद्ये।।

सरस्वती स्तुति

या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता ।
या वीणावरदण्ड-मण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।।
या ब्राहृाच्युतशंकरप्रभृतिभिर्देवै, सदा वन्दिता ।
सा मां पातु सरस्वती भगवती नि:शेषजाड्यापहा।।

श्री दुर्गा स्तुति

जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोस्तुते।।

श्री कृष्ण स्तुति

श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारे, 
हे नाथ नारायण वासुदेव।
हरे मुरारे मधु कैटभारे, 
निराश्रयं माँ जगदीश रक्ष।।

राम स्तुति

नीलाम्बुज श्यामलकोमलांगम् सीतासमारोपित-वामभागम्।
पाणौ महासायक-चारुचापं नमामि रामं रघुवंशनाथम्।।

शिव स्तुति

कर्पूरगौरं करुणावतांर, संसारसारं भुजगेन्द्रहारम्।
सव्दावसंतं ह्मदयारविन्दे, भवं भवानीसहितं नमामि।।

श्री गणेश स्तुति


गजाननं भूत गणाधिसेवितं कतिपय 
जम्बूफल चारू भक्षणम्।
उमा सुतं शोक विनाश कारकं नवामि 
विघ्ने•ार पाद पंकजम्।।

दुर्गा स्तोत्र

प्रथम दुर्गा त्वहिभवसागर तारणीम्।
धन ऐश्वर्य दायिनी शैलपुत्रीप्रणमाभ्यहम्॥
त्रिलोकजननींत्वंहिपरमानंद प्रदीयनाम्।
सौभाग्यारोग्यदायनीशैलपुत्रीप्रणमाभ्यहम्॥
चराचरेश्वरीत्वंहिमहामोह विनाशिन।
भुक्ति, मुक्ति दायनी,शैलपुत्रीप्रणमाभ्यहम्॥
चराचरेश्वरीत्वंहिमहामोह विनाशिन।
भुक्ति, मुक्ति दायिनी शैलपुत्रीप्रणमाभ्यहम्॥

कवच
ओमकार:में शिर: पातुमूलाधार निवासिनी।
हींकार,पातुललाटेबीजरूपामहेश्वरी॥
श्रीकार:पातुवदनेलज्जारूपामहेश्वरी।
हूंकार:पातुहृदयेतारिणी शक्ति स्वघृत॥
फट्कार:पातुसर्वागेसर्व सिद्धि फलप्रदा।

ॐ साईं राम स्तुति

ॐ साईं राम

हाथ जोड कर शीश झुका कर
साई तेरे दर पर आकर
बाबा करते हम अरदास
रखना श्री चरणो के पास

मागे हम आ हाथ पसारे
जो हम चाहे देना प्यारे
धन दौलत की नही है आस
न ही राज योग की प्यास

नहीं चाहिये महल चौबारे
नहीं चाहिये वैभव सारे
नहीं चाहिये यश और मान
ना देना कोई सम्मान

जो हम चाहें सुन लो दाता
देना होगा तुम्हें विधाता
खाली हम ना जायेंगे
जो मान्गा सो पायेंगे

हमको प्रभु प्रेम दो ऐसा
शामा को देते थे जैसा
हरदम रखो अपने साथ
मस्तक पर धर कर श्री हाथ

भक्ति हममे जगाओ वैसी
जगाई मेधा मे थी जैसी
भक्ति मे भूलें जग सारा
केवल तेरा रहे सहारा

महादान हमको दो ऐसा
लक्श्मी शिन्दे को दिया था जैसा
अष्टांग योग नवधा भक्ति
साई सब है तेरी शक्ति

सेवा का अवसर दो ऐसा
भागो जी को दिया था जैसा
चाहे कष्ट अनेक सहें
श्री चरणों का ध्यान रहे

निकटता दे दो हमको वैसी
म्हाल्सापति को दी थी जैसी
प्रभु बना लो अपना दास
ह्रदय में आ करो निवास

सम्वाद करो हमसे प्रभु ऐसे
तात्या से करते थे जैसे
सुख दुख तुमसे बांट सकें
रिश्ता तुम से गान्ठ सके

महाग्यान दो हमको ऐसा
नाना साहेब को दिया था जैसा
दूर अझान अन्धेरा हो
जीवन में नया सवेरा हो

वाणी दे दो हमको वैसी
दासगणु को दी थी जैसी
घर घर तेरा गान करें
साई तेरा ध्यान धरें

आशिष दे दो हमको ऐसा
हेमाडपंत को दिया था जैसा
कुछ हम भी तो कर जाऎं
साईं स्तुति रच तर जाऎं

महाप्रसाद हमको दो ऐसा
देते राधा माई को जैसा
हम भी पाऎं कॄपा प्रसाद
शेष रहे ना कोई स्वाद

आधि व्याधि हर लो ऐसे
काका जी की हरी थी जैसे
शेष रहे ना कोई विकार
दुर्गुण , दुर्मन दुर्विचार

मुक्ति देना हमको वैसी
बालाराम को दी थी जैसी
श्री चरणों में डालें डेरा
जन्म मरण का छूटे फेरा

जो मांगा है नहीं असंभव
तुम चाहो तो कर दो संभव
विनती ना ठुकराओ तुम
बच्चों को अपनाओ तुम

माना दोष घनेरे हैं
बाबा फिर भी तेरे हैं
दो हमको मनचाहा दान
भक्तों का कर दो कल्याण

सरस्वती मंत्र

या कुंदेंदु तुषार हार धवला या शुभ्र वृस्तावता ।
या वीणा वर दण्ड मंडित करा या श्वेत पद्मसना ।।
या ब्रह्माच्युत्त शंकर: प्रभृतिर्भि देवै सदा वन्दिता ।
सा माम पातु सरस्वती भगवती नि:शेष जाड्या पहा।।

गंगा मंत्र

गंगा गंगेति यों ब्रुयात योजननम शतैरपि
मुच्यते सर्व पापेभ्यो विश्नुलोकम स गच्चति |



हनुमान् मंत्र

मनोजवं मारुतातुल्यावेगम
जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वारिस्थं,
वातात्मजं वानारायूथ्मुख्यम
श्रीरामदूतं सरनाम प्रपद्ये |

विष्णु मंत्र

शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं
 विश्वाधारं गगनसदृश्यं मेघवर्णं शुभाङ्गम्।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं
 वन्दे विष्णु भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्।


लक्ष्मी स्तुति

।।ॐ नमो नमः।।
पद्मानने पद्मिनि पद्म-हस्ते पद्म-प्रिये पद्म-दलायताक्षि।
विश्वे-प्रिये विष्णु-मनोनुकूले, त्वत्-पाद-पद्मं मयि सन्निधत्स्व।।

पद्मानने पद्म-उरु, पद्माक्षी पद्म-सम्भवे।
त्वन्मा भजस्व पद्माक्षि, येन सौख्यं लभाम्यहम्।।

अश्व-दायि च गो-दायि, धनदायै महा-धने।
धनं मे जुषतां देवि, सर्व-कामांश्च देहि मे।।

पुत्र-पौत्र-धन-धान्यं, हस्त्यश्वादि-गवे रथम्।
प्रजानां भवति मातः, अयुष्मन्तं करोतु माम्।।

धनमग्निर्धनं वायुर्धनं सूर्यो धनं वसुः।
धनमिन्द्रा वृहस्पतिर्वरुणो धनमश्नुते।।

वैनतेय सोमं पिब, सोमं पिबतु वृत्रहा।
सोमं धनस्य सोमिनो, मह्मं ददातु सोमिनि।।

न क्रोधो न च मात्सर्यं, न लोभो नाशुभा मतीः।
भवन्ती कृत-पुण्यानां, भक्तानां श्री-सूक्तं जपेत्।।

माँ लक्ष्मी मन्त्र

श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं कमलवासिन्यै स्वाहा

।महा-मन्त्र।।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ हिरण्य-वर्णां हरिणीं, सुवर्ण-रजत-स्त्रजाम्।
चन्द्रां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं, जातवेदो म आवह।।१
दारिद्रय-दुःख-भय हारिणि का त्वदन्या, सर्वोपकार-करणाय सदाऽऽर्द्र-चित्ता।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
तां म आवह जात-वेदो, लक्ष्मीमनप-गामिनीम्।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं, गामश्वं पुरूषानहम्।।२
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
अश्वपूर्वां रथ-मध्यां, हस्ति-नाद-प्रमोदिनीम्।
श्रियं देवीमुपह्वये, श्रीर्मा देवी जुषताम्।।३
दारिद्रय-दुःख-भय हारिणि का त्वदन्या, सर्वोपकार-करणाय सदाऽऽर्द्र-चित्ता।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं ॐ महा-लक्ष्म्यै नमः।
ॐ दुर्गे, स्मृता हरसि भीतिमशेष-जन्तोः, स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव-शुभां ददासि।।
कांसोऽस्मि तां हिरण्य-प्राकारामार्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीं।
पद्मे स्थितां पद्म-वर्णां तामिहोपह्वये श्रियम्।।४
दारिद्रय-दुःख-भय हारिणि का त्वदन्या, सर्वोपकार-करणाय सदाऽऽर्द्र-चित्ता।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं ॐ महा-लक्ष्म्यै नमः।
ॐ दुर्गे, स्मृता हरसि भीतिमशेष-जन्तोः, स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव-शुभां ददासि।।
चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देव-जुष्टामुदाराम्।
तां पद्म-नेमिं शरणमहं प्रपद्ये अलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणोमि।।५
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
आदित्य-वर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽक्ष बिल्वः।
तस्य फलानि तपसा नुदन्तु मायान्तरायाश्च बाह्या अलक्ष्मीः।।६
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
उपैतु मां दैव-सखः, कीर्तिश्च मणिना सह।
प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन्, कीर्ति वृद्धिं ददातु मे।।७
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
क्षुत्-पिपासाऽमला ज्येष्ठा, अलक्ष्मीर्नाशयाम्यहम्।
अभूतिमसमृद्धिं च, सर्वान् निर्णुद मे गृहात्।।८
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
गन्ध-द्वारां दुराधर्षां, नित्य-पुष्टां करीषिणीम्।
ईश्वरीं सर्व-भूतानां, तामिहोपह्वये श्रियम्।।९
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
मनसः काममाकूतिं, वाचः सत्यमशीमहि।
पशूनां रूपमन्नस्य, मयि श्रीः श्रयतां यशः।।१०
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
कर्दमेन प्रजा-भूता, मयि सम्भ्रम-कर्दम।
श्रियं वासय मे कुले, मातरं पद्म-मालिनीम्।।११
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
आपः सृजन्तु स्निग्धानि, चिक्लीत वस मे गृहे।
निच-देवी मातरं श्रियं वासय मे कुले।।१२
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं, सुवर्णां हेम-मालिनीम्।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो ममावह।।१३
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं, पिंगलां पद्म-मालिनीम्।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो ममावह।।१४
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
तां म आवह जात-वेदो लक्ष्मीमनप-गामिनीम्।
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् विन्देयं पुरूषानहम्।।१५
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।
यः शुचिः प्रयतो भूत्वा, जुहुयादाज्यमन्वहम्।
श्रियः पंच-दशर्चं च, श्री-कामः सततं जपेत्।।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये मह्य प्रसीद-प्रसीद महा-लक्ष्मि, ते नमः।

महादेव शिव मंत्र


॥ ॐ नम: शिवाय: ॥


श्री कृष्ण मंत्र


ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

  

गायत्री मंत्र

ॐ भूर्भू:स्व: तत् सवितुर वरेणियम।

भर्गोदेवस्य धी महि धियो योन: प्रचोदयात।।


श्री गणेश मंत्र


॥ ॐ श्री गणेशाय नमः ॥
  ॥ ॐ गं गणपतये नमो नमः ॥
॥ श्री सिद्धिविनायक नमो नमः ॥
॥ अष्टविनायक नमो नमः ॥
॥ गणपति बाप्पा मोरया ॥

दुर्गा मंत्र

या देवी सर्वभूतेषु माँ सिद्धिदात्री रूपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।



Sunday, May 30, 2010

श्रीगणेश स्तोत्र

गजाननं भूतगणादिसेवितं
कपित्थजम्बूफलचारुभक्षणम्।

उमासुतं शोकविनाशकारकं
नमामि विग्नेश्वरपादपंकजम्।।

श्रीरामरक्षास्तोत्र

श्रीरामरक्षास्तोत्र

श्री गणेशाय नमः। 
अस्य श्रीरामरक्षास्तोत्रमंत्रस्य। 
बुधकौशिकऋषिः। 
श्रीसीतारामचंद्रो देवता। 
अनुष्टुप् छंदः। सीता शक्तिः। श्रीमध्ददुमान्कीलकम्। 
श्रीसीतारामचंद्रप्रीत्यर्थ रामरक्षास्तोत्रमंत्रजपे विनियोगः। 
ध्यायेदाजानुबाहुं धृतशरधनुषं बध्दपद्मासनस्थम्। 
पीतं वासो वसानं नवकमदलस्पर्धिनेत्रं प्रसन्नम्। 
वामड्.कारूढसीतामुखकमलमिलल्लोचनं नीरदाभम्। 
नानालंकारदीप्तं दधतमुरूजटामण्डनं रामचंद्रम् ।
 इति ध्यानम्।।

चरितं रघुनाथास्य शतकोटिप्रविस्तरम्। एकैकमक्षरं पुसां महापातकनाशानम्।।१।।
ध्यात्वा नीलोप्तलश्यामं रामं राजीवलोचनम्। जानकीलक्ष्मणोपेतं जटामुकुटमण्डितम्।।२।।
सासितूणधनुर्बाणपाणिं नत्त्कंचरांतकम्। स्वलीलया जगतत्रातुमाविर्भूतमजं विभुम्।।३।।
रामरक्षां पठेत्प्राज्ञः पापर्घ्नी सर्वकामदाम्। शिरो मे राघवः पातु, भालं दशरथात्मजः।।४।।
कौसल्येयो दृशौ पातु, विश्वमित्रप्रियः श्रुती। घ्राणं पातु मखत्राता, मुखं सौमित्रिवत्सलः।।५।।
जिव्हां विद्यानिधिः पातु, कण्ठं भरतवन्दितः। स्कन्धौ दिव्यायुधः पातु, भुजौ भग्नेशकार्मुकः।।६।।
करौ सीतापतिः पातु ह्दयं जामदग्नजित्। मध्यं पातु खरध्वंसी नाभिं जाम्बवदाश्रयः।।७।।
सुग्रीवेशः कटी पातु सक्थिनी हनुमत्प्रभु:। ऊरू रघुत्तमः पातु रक्षःकुलविनाशकृत्।।८।।
जानुनी सेतुकृत्पातु जड्.घे दशमुखान्तकः। पादौ बिभीषणश्रीदः पातु रामो खिलं वपु ।।९।।
रक्षास्तोत्रम् संपूर्णम्। एतां रामबलोपेतां रक्षां यः सुकृती पठेत्। स चिरायु सुखी पुत्री विजयी विनयी भवेत्।।१०।।
पातालभूतलव्योमचारिणश्छद्मचारिणः। न द्रष्टुमपि शत्त्कास्ते रक्षितं रामनामभिः।।११।।
रामेत रामभद्रेति वा स्मरन्। नरो न लिप्यते पापेर्भुत्त्किं मुत्त्किं च विन्दति ।।१२।।
जगज्जेत्रैकमंत्रेण रामनाम्ना भिरक्षितम्। यः कण्ठे धारयेत्तस्य करस्थाः सर्वसिध्दयः।।१३।।
वज्रपंजरनामेदं यो रामकवच स्मरेत्। अव्याहताज्ञः सर्वत्र लभते जयमङ्गलम्।।१४।।
आदिष्टवान्यथा स्वप्ने रामरक्षामिमां हरः। तथा लिखितवान्प्रातः प्रबुध्दो बुधकौशिकः।।१५।।
आरामः कलापवृक्षाणां विरामः सकलापदाम्। अभिरामस्त्रिलोकांनां रामः श्रीमान् स नः प्रभु।।१६।।
तरूणौ रूपसंपन्ना सुकुमारौ महाबलौ। पुण्डरीकविशालाक्षौ चीरकृष्णाजिनाम्बरौ।।१७।।
फलमुलाशिनौ दान्तौ तापसौ ब्रह्मचारिणौ।। पुत्रौ दशरथस्येतौ भ्रातरौ रामलक्ष्णौ।।१८।।
शरण्यौ सर्वसत्त्वानां श्रेष्ठौ सर्वधनुष्मताम्। रक्षःकुलनिहन्तोरौ त्रायेतां नो रघूत्तमौ।।१९।।
आत्तसज्जधनुषाविषुस्पृशावक्षयाशुगनिषङ्गसंगिनौ। रक्षणाय मम रामलक्ष्मणावग्रतः पथि सदैव गच्छताम्।।२०।।
स़ध्दः कवची खड्गी चापबाणधरो युवा। गच्छन्मनोरथो स्माकं रामः पातु सलक्ष्मणः।।२१।।
रामो दशरथिः शूरो लक्ष्मणानुचरो बली। काकुत्स्थः पुरूषः पूर्ण कौसल्येयो रघूत्तमः।।२२।।
वेदान्तवेद्यो यज्ञेशः पुराणपुरूषोत्तमः। जानकीबल्लभः श्रीमानप्रमेयपराक्रमः।।२३।।
इत्येतानि जपेन्नित्यं मद्भत्त्कः श्रध्दया न्वितः अश्वमेधाधिकं पुण्यं संप्राप्नोति न संशयः।।२४।।
रामं दूर्वादलश्यामं पद्माक्षं पीतवाससम्। स्तुवन्ति नामभिर्दिव्यैने ते संसारिणो नरः।।२५।।
रामं लक्ष्मणपूर्वजं रघुवरं सीतापतिं सुंदरम्। काकुत्स्थुं करूणार्णावं गुणनिधिं विप्रप्रियं धार्मिकम्। राजेंन्द्र सत्यसंधं दशरथतनयं श्यामलं शांन्तमूर्तिम्। वन्दे लोकाभिरामं रघुकुलतिलकं राघवं रावणारिम्।।२६।।
रामाय रामभौद्राय रामचंद्राय वंधसे। रघुनाथाय नाथाय सीतायाः पतये नमः।।२७।।
श्री राम राम रघुनंन्दन राम राम। श्रीराम राम भरताग्रज राम राम। श्रीराम राम रणकर्कश राम राम। श्रीराम शरणं भव राम राम।।२८।।
श्रीरामचंद्रचरणौ मनसा स्मरामि। श्रीरामचंद्राचरणौ वचसा गृणामि। श्रीरामचंद्राचरणौ शिरसा नमामि। श्रीरामचंद्राचरणौ शरणं प्रपद्ये।।२९।।
माता रामो मत्पिता रामचंद्र:। स्वामी रामो मत्सखा रामचंद्र:। सर्वस्वं मे रामचंद्रा दयालुर्नान्यं जाने नैव जाने न जाने।।३०।।
दक्षिणे लक्ष्मणो यस्य वामे च जनकात्मजा। पुरतो मारूतिर्यस्य तं वंन्दे रघुनन्दनम्।। ३१।।
लोकाभिरामं रणरंगधिरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम्। कारुण्यरुपं करुणाकरं तं श्रीरामचंद्रं शरणं प्रपद्ये।।३२।।
मनोजवं मारूततुल्यवेगं जितेंन्द्रियं बुध्दिमतां वरिष्ठम्। वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये।।३३।।
कूजन्तं रामरामेति मधुं मधुराक्षरम्। आरूह्य कविताशाखां वन्दे वाल्मीकिकोकिलम्।।३४।।
आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसंपदाम्। लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम्।।३५।।
भर्जनं भवबीजानामर्जनं सुखसंपदाम् तर्जनं यमदूतानां रामरामेति गर्जनम्।।३६।।
रामो राजमणिः सदा विजयते रामं रमेशं भजे। रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नम:।। रामान्नास्ति परायणं परतरं रामस्य दासो स्म्यहं। रामे चित्तलयः सदा भवतु मे भो राम मामुध्दर।।३७।।
राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे। सहस्त्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने।।३८।।
।। इति श्रीबुध्दकौशिकविरचितं श्रीरामरक्षास्तोत्रं संपूर्णम् ।।

श्री राम मंत्र



ॐ श्री राम रामय नमः



श्री राम स्तुति

श्री राम चंद्र कृपालु भजमन हरण भाव भय दारुणम् |
नवकंज लोचन कंज मुखकर, कंज पद कन्जारुणम ||

कंदर्प अगणित अमित छवी नव नील नीरज सुन्दरम |
पट्पीत मानहु तडित रूचि शुचि नौमी जनक सुतावरम ||

भजु दीन बंधू दिनेश दानव दैत्य वंश निकंदनम |
रघुनंद आनंद कंद कौशल चंद दशरथ नन्दनम ||

सिर मुकुट कुंडल तिलक चारु उदारू अंग विभुषणं |
आजानु भुज शर चाप धर संग्राम जित खर - धुषणं ||

इति वदति तुलसीदास शंकर शेष मुनि मन रंजनम |
मम ह्रदय कुंज निवास कुरु कामादी खल दल गंजनम ||

श्री साईं आरती

आरती श्री साईं गुरुवर की l परमानन्द सदा सुरवर की ll
जाकी कृपा विपुल सुखकारी l दुःख, शोक, संकट, भयहारी ll
शिरडी में अवतार रचाया l चमत्कार से तत्व दिखाया ii
कितने भक्त चरण पर आये l वे सुख शांति चिरंतन पाये ii
भावः चारे मन में जैसा l पावत अनुभव वो ही वैसा ll
गुरु की लगावे तन को l समाधान लाभत उस मनको ll
साईं नाम सदा जो गावे l सो फल जग में शाश्वत पावे ll
गुरुबारसर करी पूजा सेवा l उस पर कृपा करत गुरुदेवा ll
राम, कृष्ण, हनुमान रूप में l दे दर्शन जानत जो मन में ll
विविध धर्म के सेवक आते l दर्शन से इच्छित फल पाते ll
जय बोलो साईबाबा की l जय बोलो अवधुतगुरु की ll
साईंदास आरती को गावे l घर में बसी सुख, मंगल पावे ll

साईं चालीसा

पहले साईं के चरणों में, अपना शीश नमाऊं मैं ।
कैसे शिर्डी साईं आए, सारा हाल सुनाऊं मैं ॥1॥
कौन हैं माता, पिता कौन हैं, यह न किसी ने भी जाना ।
कहां जनम साईं ने धारा, प्रश्न पहेली रहा बना ॥
कोई कहे अयोध्या के ये, रामचन्द्र भगवान हैं ।
कोई कहता साईंबाबा, पवन-पुत्र हनुमान हैं ॥
कोई कहता मंगल मूर्ति, श्री गजानन हैं साईं ।
कोई कहता गोकुल-मोहन, देवकी नन्दन हैं साईं ॥
शंकर समझ भक्त कई तो, बाबा को भजते रहते ।
कोई कह अवतार दत्त का, पूजा साईं की करते ॥
कुछ भी मानो उनको तुम, पर साईं हैं सच्चे भगवान ।
बड़े दयालु, दीनबन्धु, कितनों को दिया है जीवन दान ॥
कई वर्ष पहले की घटना, तुम्हें सुनाऊंगा मैं बात ।
किसी भाग्यशाली की, शिर्डी में आई थी बारात ॥
आया साथ उसी के था, बालक एक बहुत सुन्दर ।
आया, आकर वहीं बस गया, पावन शिर्डी किया नगर ॥
कई दिनों तक रहा भटकता, भिक्षा मांगी उसने दर-दर ।
और दिखाई ऐसी लीला, जग में जो हो गई अमर ॥
जैसे-जैसे उमर बढ़ी, वैसे ही बढ़ती गई शान ।
घर-घर होने लगा नगर में, साईं बाबा का गुणगान ॥
दिग्-दिगन्त में लगा गूंजने, फिर तो साईंजी का नाम ।
दीन-दुखी की रक्षा करना, यही रहा बाबा का काम ॥
बाबा के चरणों में जाकर, जो कहता मैं हूं निर्धन ।
दया उसी पर होती उनकी, खुल जाते दु:ख के बन्धन ॥
कभी किसी ने मांगी भिक्षा, दो बाबा मुझको सन्तान ।
एवं अस्तु तब कहकर साईं, देते थे उसको वरदान ॥
स्वयं दु:खी बाबा हो जाते, दीन-दुखी जन का लख हाल ।
अन्त: करण श्री साईं का, सागर जैसा रहा विशाल ॥
भक्त एक मद्रासी आया, घर का बहुत बड़ा धनवान ।
माल खजाना बेहद उसका, केवल नहीं रही सन्तान ॥
लगा मनाने साईं नाथ को, बाबा मुझ पर दया करो ।
झंझा से झंकृत नैया को, तुम ही मेरी पार करो ॥
कुलदीपक के अभाव में, व्यर्थ है दौलत की माया ।
आज भिखारी बन कर बाबा, शरण तुम्हारी मैं आया ॥
दे दो मुझको पुत्र दान, मैं ॠणी रहूंगा जीवन भर ।
और किसी की आस न मुझको, सिर्फ़ भरोसा है तुम पर ॥
अनुनय-विनय बहुत की उसने, चरणों में धर के शीश ।
तब प्रसन्न होकर बाबा ने, दिया भक्त को यह आशीष ॥
'अल्लाह भला करेगा तेरा', पुत्र जन्म हो तेरे घर ।
कृपा होगी तुम पर उसकी, और तेरे उस बालक पर ॥
अब तक नही किसी ने पाया, साईं की कृपा का पार ।
पुत्र रत्न दे मद्रासी को, धन्य किया उसका संसार ॥
तन-मन से जो भजे उसी का, जग में होता है उद्धार ।
सांच को आंच नहीं है कोई, सदा झूठ की होती हार ॥
मैं हूं सदा सहारे उसके, सदा रहूंगा उसका दास ।
साईं जैसा प्रभु मिला है, इतनी ही कम है क्या आस ॥
मेरा भी दिन था इक ऐसा, मिलती नहीं मुझे थी रोटी ।
तन पर कपड़ा दूर रहा था, शेष रही नन्हीं सी लंगोटी ॥
सरिता सन्मुख होने पर भी मैं प्यासा का प्यासा था ।
दुर्दिन मेरा मेरे ऊपर, दावाग्नि बरसाता था ॥
धरती के अतिरिक्त जगत में, मेरा कुछ अवलम्ब न था ।
बना भिखारी मैं दुनिया में, दर-दर ठोकर खाता था ॥
ऐसे में इक मित्र मिला जो, परम भक्त साईं का था ।
जंजालों से मुक्त मगर इस, जगती में वह मुझ-सा था ॥
बाबा के दर्शन की खातिर, मिल दोनों ने किया विचार ।
साईं जैसे दया-मूर्ति के, दर्शन को हो गए तैयार ॥
पावन शिर्डी नगरी में जाकर, देखी मतवाली मूर्ति ।
धन्य जन्म हो गया कि हमने, जब देखी साईं की सूरति ॥
जबसे किए हैं दर्शन हमने, दु:ख सारा काफूर हो गया ।
संकट सारे मिटे और, विपदाओं का अन्त हो गया ॥
मान और सम्मान मिला, भिक्षा में हमको बाबा से ।
प्रतिबिम्बित हो उठे जगत में, हम साईं की आभा से ॥
बाबा ने सम्मान दिया है, मान दिया इस जीवन में ।
इसका ही सम्बल ले मैं, हंसता जाऊंगा जीवन में ॥
साईं की लीला का मेरे, मन पर ऐसा असर हुआ ।
लगता जगती के कण-कण में, जैसे हो वह भरा हुआ ॥
"काशीराम" बाबा का भक्त, इस शिर्डी में रहता था ।
मैं साईं का साईं मेरा, वह दुनिया से कहता था ॥
सीकर स्वयं वस्त्र बेचता, ग्राम नगर बाजारों में ।
झंकृत उसकी हृद तन्त्री थी, साईं की झंकारों में ॥
स्तब्ध निशा थी, थे सोये, रजनी आंचल में चांद-सितारे ।
नहीं सूझता रहा हाथ को हाथ तिमिर के मारे ॥
वस्त्र बेचकर लौट रहा था, हाय! हाट से "काशी" ।
विचित्र बड़ा संयोग कि उस दिन, आता था वह एकाकी ॥
घेर राह में खड़े हो गए, उसे कुटिल, अन्यायी ।
मारो काटो लूटो इस की ही ध्वनि पड़ी सुनाई ॥
लूट पीट कर उसे वहां से, कुटिल गये चम्पत हो ।
आघातों से ,मर्माहत हो, उसने दी संज्ञा खो ॥
बहुत देर तक पड़ा रहा वह, वहीं उसी हालत में ।
जाने कब कुछ होश हो उठा, उसको किसी पलक में ॥
अनजाने ही उसके मुंह से, निकल पड़ा था साईं ।
जिसकी प्रतिध्वनि शिर्डी में, बाबा को पड़ी सुनाई ॥
क्षुब्ध उठा हो मानस उनका, बाबा गए विकल हो ।
लगता जैसे घटना सारी, घटी उन्हीं के सम्मुख हो ॥
उन्मादी से इधर-उधर, तब बाबा लगे भटकने ।
सम्मुख चीजें जो भी आईं, उनको लगे पटकने ॥
और धधकते अंगारों में, बाबा ने अपना कर डाला ।
हुए सशंकित सभी वहां, लख ताण्डव नृत्य निराला ॥
समझ गए सब लोग कि कोई, भक्त पड़ा संकट में ।
क्षुभित खड़े थे सभी वहां पर, पड़े हुए विस्मय में ॥
उसे बचाने के ही खातिर, बाबा आज विकल हैं ।
उसकी ही पीड़ा से पीड़ित, उनका अन्त:स्थल है ॥
इतने में ही विधि ने अपनी, विचित्रता दिखलाई ।
लख कर जिसको जनता की, श्रद्धा-सरिता लहराई ॥
लेकर कर संज्ञाहीन भक्त को, गाड़ी एक वहां आई ।
सम्मुख अपने देख भक्त को, साईं की आंखें भर आईं ॥
शान्त, धीर, गम्भीर सिन्धु-सा, बाबा का अन्त:स्थल ।
आज न जाने क्यों रह-रह कर, हो जाता था चंचल ॥
आज दया की मूर्ति स्वयं था, बना हुआ उपचारी ।
और भक्त के लिए आज था, देव बना प्रतिहारी ॥51॥
आज भक्ति की विषम परीक्षा में, सफल हुआ था “काशी” ।
उसके ही दर्शन के खातिर, थे उमड़े नगर-निवासी ॥
जब भी और जहां भी कोई, भक्त पड़े संकट में ।
उसकी रक्षा करने बाबा, आते हैं पलभर में ॥
युग-युग का है सत्य यह, नहीं कोई नई कहानी ।
आपातग्रस्त भक्त जब होता, आते खुद अन्तर्यामी ॥
भेद-भाव से परे पुजारी, मानवता के थे साईं ।
जितने प्यारे हिन्दु-मुस्लिम, उतने ही थे सिक्ख ईसाई ॥
भेद-भाव मन्दिर-मस्जिद का, तोड़-फोड़ बाबा ने डाला ।
राम-रहीम सभी उनके थे, कृष्ण-करीम-अल्लाहताला ॥
घण्टे की प्रतिध्वनि से गूंजा, मस्जिद का कोना-कोना ।
मिले परस्पर हिन्दू-मुस्लिम, प्यार बढ़ा दिन-दिन दूना ॥
चमत्कार था कितना सुंदर, परिचय इस काया ने दी ।
और नीम कडुवाहट में भी, मिठास बाबा ने भर दी ॥
सबको स्नेह दिया साईं ने, सबको सन्तुल प्यार किया ।
जो कुछ जिसने भी चाहा, बाबा ने उनको वही दिया ॥
ऐसे स्नेह शील भाजन का, नाम सदा जो जपा करे ।
पर्वत जैसा दु:ख न क्यों हो, पलभर में वह दूर टरे ॥
साईं जैसा दाता हमने, अरे नहीं देखा कोई ।
जिसके केवल दर्शन से ही, सारी विपदा दूर हो गई ॥
तन में साईं, मन में साईं, साईं-साईं भजा करो ।
अपने तन की सुधि-बुधि खोकर, सुधि उसकी तुम किया करो ॥
जब तू अपनी सुधि तज, बाबा की सुधि किया करेगा ।
और रात-दिन बाबा, बाबा ही तू रटा करेगा ॥
तो बाबा को अरे! विवश हो, सुधि तेरी लेनी ही होगी ।
तेरी हर इच्छा बाबा को, पूरी ही करनी होगी ॥
जंगल-जंगल भटक न पागल, और ढूंढ़ने बाबा को ।
एक जगह केवल शिर्डी में, तू पायेगा बाबा को ॥
धन्य जगत में प्राणी है वह, जिसने बाबा को पाया ।
दु:ख में सुख में प्रहर आठ हो, साईं का ही गुण गाया ॥
गिरें संकटों के पर्वत, चाहे बिजली ही टूट पड़े ।
साईं का ले नाम सदा तुम, सम्मुख सब के रहो अड़े ॥
इस बूढ़े की करामात सुन, तुम हो जाओगे हैरान ।
दंग रह गये सुनकर जिसको, जाने कितने चतुर सुजान ॥
एक बार शिर्डी में साधू, ढ़ोंगी था कोई आया ।
भोली-भाली नगर-निवासी, जनता को था भरमाया ॥
जड़ी-बूटियां उन्हें दिखाकर, करने लगा वहां भाषण ।
कहने लगा सुनो श्रोतागण, घर मेरा है वृन्दावन ॥
औषधि मेरे पास एक है, और अजब इसमें शक्ति ।
इसके सेवन करने से ही, हो जाती दु:ख से मुक्ति ॥
अगर मुक्त होना चाहो तुम, संकट से बीमारी से ।
तो है मेरा नम्र निवेदन, हर नर से हर नारी से ॥
लो खरीद तुम इसको इसकी, सेवन विधियां हैं न्यारी ।
यद्यपि तुच्छ वस्तु है यह, गुण उसके हैं अति भारी ॥
जो है संतति हीन यहां यदि, मेरी औषधि को खायें ।
पुत्र-रत्न हो प्राप्त, अरे वह मुंह मांगा फल पायें ॥
औषधि मेरी जो न खरीदे, जीवन भर पछतायेगा ।
मुझ जैसा प्राणी शायद ही, अरे यहां आ पायेगा ॥
दुनियां दो दिन का मेला है, मौज शौक तुम भी कर लो ।
गर इससे मिलता है, सब कुछ, तुम भी इसको ले लो ॥
हैरानी बढ़ती जनता की, लख इसकी कारस्तानी ।
प्रमुदित वह भी मन ही मन था, लख लोगो की नादानी ॥
खबर सुनाने बाबा को यह, गया दौड़कर सेवक एक ।
सुनकर भृकुटि तनी और, विस्मरण हो गया सभी विवेक ॥
हुक्म दिया सेवक को, सत्वर पकड़ दुष्ट को लाओ ।
या शिर्डी की सीमा से, कपटी को दूर भगाओ ॥
मेरे रहते भोली-भाली, शिर्डी की जनता को ।
कौन नीच ऐसा जो, साहस करता है छलने को ॥
पल भर में ही ऐसे ढ़ोंगी, कपटी नीच लुटेरे को ।
महानाश के महागर्त में, पहुंचा दूं जीवन भर को ॥
तनिक मिला आभास मदारी क्रूर कुटिल अन्यायी को ।
काल नाचता है अब सिर पर, गुस्सा आया साईं को ॥
पल भर में सब खेल बन्द कर, भागा सिर पर रखकर पैर ।
सोच था मन ही मन, भगवान नहीं है अब खैर ॥
सच है साईं जैसा दानी, मिल न सकेगा जग में ।
अंश ईश का साईंबाबा, उन्हें न कुछ भी मुश्किल जग में ॥
स्नेह, शील, सौजन्य आदि का, आभूषण धारण कर ।
बढ़ता इस दुनिया में जो भी, मानव-सेवा के पथ पर ॥
वही जीत लेता है जगती के, जन-जन का अन्त:स्थल ।
उसकी एक उदासी ही जग को कर देती है विह्वल ॥
जब-जब जग में भार पाप का, बढ़ बढ़ ही जाता है ।
उसे मिटाने के ही खातिर, अवतारी ही आता है ॥
पाप और अन्याय सभी कुछ, इस जगती का हर के ।
दूर भगा देता दुनिया के, दानव को क्षण भर में ॥
स्नेह सुधा की धार बरसने, लगती है इस दुनिया में ।
गले परस्पर मिलने लगते, हैं जन-जन आपस में ॥
ऐसे ही अवतारी साईं, मृत्युलोक में आकर ।
समता का यह पाठ पढ़ाया, सबको अपना आप मिटाकर ॥
नाम द्वारका मस्जिद का, रक्खा शिर्डी में साईं ने ।
दाप, ताप, सन्ताप मिटाया, जो कुछ आया साईं ने ॥
सदा याद में मस्त राम की, बैठे रहते थे साईं ।
पहर आठ ही राम नाम का, भजते रहते थे साईं ॥
सूखी-रूखी, ताजी-बासी, चाहे या होवे पकवान ।
सदा प्यार के भूखे साईं की, खातिर थे सभी समान ॥
स्नेह और श्रद्धा से अपनी, जन जो कुछ दे जाते थे ।
बड़े चाव से उस भोजन को, बाबा पावन करते थे ॥
कभी-कभी मन बहलाने को, बाबा बाग में जाते थे ।
प्रमुदित मन निरख प्रकृति, छटा को वे होते थे ॥
रंग-बिरंगे पुष्प बाग के, मन्द-मन्द हिल-डुल करके ।
बीहड़ वीराने मन में भी, स्नेह सलिल भर जाते थे ॥
ऐसी सुमधुर बेला में भी, दु:ख आपात विपदा के मारे ।
अपने मन की व्यथा सुनाने, जन रहते बाबा को घेरे ॥
सुनकर जिनकी करूण कथा को, नयन कमल भर आते थे ।
दे विभूति हर व्यथा,शान्ति, उनके उर में भर देते थे ॥
जाने क्या अद्भुत,शक्ति, उस विभूति में होती थी ।
जो धारण करते मस्तक पर, दु:ख सारा हर लेती थी ॥
धन्य मनुज वे साक्षात् दर्शन, जो बाबा साईं के पाये ।
धन्य कमल-कर उनके जिनसे, चरण-कमल वे परसाये ॥
काश निर्भय तुमको भी, साक्षात साईं मिल जाता ।
बरसों से उजड़ा चमन अपना, फिर से आज खिल जाता ॥
गर पकड़ता मैं चरण श्री के, नहीं छोड़ता उम्रभर ।
मना लेता मैं जरूर उनको, गर रूठते साईं मुझ पर ॥

श्री गायत्री माँ की आरती

ॐ जय गायत्री माता, स्वामी जय जगदम्बे माता |
तुम को निश दिन ध्यावत, हरि हर औ धाता ||
ॐ जय गायत्री माता ...

आदि शक्ति तुम जननी, जग पालन करनी |
दुःख शोक भय नाशनी, क्लेश कलह हत्री ||
ॐ जय गायत्री माता ...

तुम गंगा, तुम गीता, तुम ही सावित्री |
सविता शक्ति स्वरुपा माता गायत्री
ॐ जय गायत्री माता ...

स्वाहा स्वधा तुम हो तुम ही रुद्रानी
तुम विद्या तुम वाणी कमला कल्याणी
ॐ जय गायत्री माता ...

शुद्ध बुध्धि की दाता तुम तन की माता
तुष्टि दुष्टि तुम हो माँ क्रिद्धि श्रिद्धि दाता
ॐ जय गायत्री माता ...

तुम राधा तुम सीता तुम हो इन्द्राणी
परमा प्रकृति तुम ही हो माता ब्रम्हाणी
ॐ जय गायत्री माता ...

कालि मन्त्र

कालि मन्त्र 1
ॐ जयंती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोस्तु‍ते ll

कालि मन्त्र 2
अथ कालिमन्त्रये सद्यो वाक्सिद्धि प्राप्यवान्
अरवितैर्यः सर्वेस्तम् प्राप्नुवन्ति जना भुवि ll
सवरुहाम् महाभीम घोरदंष्ट्रम् हसन्मुखीम्
चतुर्भुजम् खड्ग-मुण्डवर-भयकरम् शिवम्
मुण्डमाला-धरम् देवी लोलजिव्हान् दिगम्बरम्
एवम् सञ्चिन्तयेत् कालिम् शमसनालयवासिनीम् ll
क्रीम् क्रीम् क्रीम् ह्रीम् ह्रीम् हुम् हुम् दक्षिणे कालिके
क्रीम् क्रीम् क्रीम् ह्रीम् ह्रीम् हुम् हुम् स्वाहा ll